16 साल के उत्तराखंड ने क्या-क्या न देखा..
-नेताओं और अफसरों की मौज, जनता जर्नाद्धन रही हाशिये पर।
देहरादून: आज उत्तराखंड राज्य बने पूरे 16 साल हो गए हैं। विडंबना है कि आंदोलनों और कुर्बानियों की नींव पर बना ये राज्य अब तक अपने पैरों पर खड़े होने लायक नहीं है। हक की लड़ाई अब तक जारी है। सियासत के खेल ऐसे निराले हैं कि 16 साल में राज्य 8 मुख्यमंत्री देख चुका है। आम लोगों को आस थी कि अब उन्हें अपने घर में रोजगार मिलेगा। असलियत ये है कि राज्य बनने के बाद पलायन करीब 40 फीसदी तक बढ़ गया। गांव के गांव बंजर हो गए। राज्य की माली हालत ऐसी है कि हर इंसान के सिर पर करीब 45 हजार का कर्ज है। राज्य स्थापना को लेकर एक दूसरे को बधाइयां दी जा रही हैं, सियासतदां ढोल-ढमाके बजा रहे हैं लेकिन आम इंसान यही सवाल पूछ रहा है कि क्या सियासी समारोह मनाने भर के लिए बनाया गया था उत्तराखंड? आखिर यहां का आम बाशिंदा कब जश्न मनाएगा?
40 फीसदी से ज्यादा पलायनराज्य बनने से सबको आस थी कि अब घर-गांवों की हालत सुधरेगी। सड़क, बिजली, पानी, एजुकेशन और हेल्थ फैसिलिटीज पहाड़ों में मिलेंगी। युवाओं को राज्य में ही रोजगार मिलेगा। हुआ ठीक उल्टा। राज्य के बनने के बाद जो पलायन रुकना चाहिए था वो और बढ़ गया। आंकड़ों के मुताबिक राज्य बनने के बाद 3 हजार पहाड़ी गांवों से 40 फीसदी से ज्यादा पलायन हुआ।
-40 फीसदी ज्यादा पलायन हुआ राज्य बनने के बाद -3000 गांवों से हुआ पलायन -15 हजार करोड़ से ज्यादा खर्च गांवों के नाम पर किस जिले में कितने घर सूने जिला घर देहरादून 20, 625 हरिद्वार 18, 437 यू एस नगर 11, 438 अल्मोड़ा 36, 401 पिथौरागढ़ 22, 936 चंपावत 11, 281 बागेश्वर 10, 073 नैनीताल 15, 075 पौड़ी 36, 654 टिहरी 33, 689 उत्तरकाशी 11, 710 चमोली 18, 535रुद्रप्रयाग 10, 971
2002 टिहरी 28 2004 टिहरी 29 2004 धारचूला 15 2009 मुनश्यारी 43 2010 बागेश्वर 18 2010 अल्मोड़ा 36 2010 पिथौरागढ़ 30 2012 उत्तरकाशी 13 2013 केदारनाथ 5000 (करीब) जरा याद करो कुर्बानी (कहां कितने आंदोलनकारी हुए शहीद) देहरादून---8 मसूरी-----7 खटीमा----5 पौड़ी-----2 कोटद्वार----2 ऋषिकेश---1 चमोली----1 ऊखीमठ---1 वर्जन-- -ऐसा नहीं कह सकते कि 16 साल में विकास नहीं हुआ है। हालांकि कृषि क्षेत्र घटना और पलायन जारी रहना चिंताजनक है। -हीरा सिंह बिष्ट, कांग्रेस विधायक। -राज्य का विकास तो हुआ है, हालांकि संतुलित विकास नहीं हुआ है। इसके लिए राजनीतिक अस्थिरता बड़ा कारण रहा है। -त्रिवेंद्र सिंह रावत, पूर्व कैबिनेट मंत्री, बीजेपी। 16 साल में नेताओं, अफसरों और माफिया का राज चला है। आम आदमी खुद को ठगा महसूस कर रहा है। काशी सिंह ऐरी, यूकेडी नेता। -राज्य के लिए भाइयों ने शहादत दी और बहिनों ने अपमान सहा, लेकिन आज उत्तराखंड भटक गया है। -सुशीला बलूनी, आंदोलनकारी -वास्तव में शहीदों के सपनों का राज्य नहीं बन पाया है। विकास कुछ क्षेत्रों और लोगों तक सिमटकर रह गया है। प्रदीप कुकरेती, आंदोलनकारी। -इन 16 सालों में युवाओं के लिए उस तरह की नीतियां नहीं बन पाई, जिस तरह की अपेक्षित थीं। युवा मायूस है। -आदित्य चौहान, युवा नेता।(आंकड़े जनगणना 2011 के मुताबिक)
बच्चा-बच्चा कर्जदार राज्य का हर इंसान इस वक्त कर्ज में। राज्य में हर बच्चा अपने सिर पर करीब 38 हजार रुपये कर्ज लेकर पैदा हो रहा है. -3185.91 करोड़ रुपये राज्य बनते वक्त यूपी से मिले थे -3377.75 करोड़ रुपये का अलग से कर्ज मिला था -40793.69 करोड़ का कर्ज वर्ष 2016-17 में हो गया राज्य पर -62000 करोड़ कर्ज 2020 तक चढ़ने का अनुमान आज भी हक की लड़ाई राज्य बनने से पहले पूरे उत्तराखंड ने हक की लड़ाई लड़ी। राज्य बना तो लगा कि शायद अब हक के लिए सड़कों पर नहीं उतरना पडे़गा, मगर नेताओं और नौकरशाहों के गठजोड़ ने आम आदमी को फिर से सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया है। दो दर्जन से ज्यादा संगठन इस वक्त राजधानी में आंदोलन छेडे़ हुए हैं। स्थापना दिवस का समारोह इन आंदोलनों की छाया तले ही मनेगा। जाहिर तौर पर हक आज भी अवाम को नहीं मिल पाया है। सियासी उठापटकये राज्य हमेशा से सियासी संकट में रहा है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 16 साल में 8 सीएम बदल गए। हर सीएम बस अपनी कुर्सी ही बचाता रह गया। 16वीं वर्षगांठ तो सियासी लिहाज से बेहद ही शर्मनाक है। इस साल मार्च में राज्य ने जो सियासी संग्राम देखा वो शर्मनाक रहा। भारी दल-बदल के चलते 16 साल के किशोर उत्तराखंड ने राष्ट्रपति शासन तक देख लिया।
16 साल में बने 8 सीएम -नित्यानंद स्वामी -भगत सिंह कोश्यारी -नारायण दत्त तिवारी -भुवन चंद्र खंडूड़ी -रमेश पोखरियाल निशंक -भुवन चंद्र खंडूड़ी -विजय बहुगुणा -हरीश रावत साल दर साल आपदाएं उत्तराखंड के साथ जुड़ी यह स्याह हकीकत रही है कि यहां लगातार आपदाएं आती हैं। लेकिन राज्य बनने के बाद आपदाग्रस्त इलाकों में जो राहत और बचाव का काम तुरंत हो सकता था वो आज तक नहीं हो रहा है। आपदा पीडि़तों को न वक्त पर मदद मिलती और न मुआवजा। 2013 की केदारनाथ त्रासदी के जख्म अब तक नहीं भरे। ज्यादा चिंता की बात ये है कि अलग राज्य में आपदा प्रबंधन की ठोस व्यवस्था अब तक हमारी सरकारें नहीं कर पाई। कब-कब पड़ी आपदा की मार वर्ष स्थान मौतें 2001 रूद्रप्रयाग 12