आने वाले ‘अच्छे दिनों’ में महिलाएं बेख़ौफ़ घर से निकल पाएंगी या उन पर नज़र रखी जाएगी? वे आज़ादी से अपनी ज़िन्दगी के फ़ैसले ले पाएंगी या उनके पहनावे रिश्तों की पसंद और प्यार की अभिव्यक्ति पर नियंत्रण होगा? राजनीति में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ेगा या पिछली सरकारों की ही तरह ये सरकार भी महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने में नाकाम रहेगी?


बतौर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए मंगलवार पहला दिन है. ऐसे में विकास, विदेश नीति और अर्थव्यवस्था इत्यादि के बीच उनके सामने महिलाओं से जुड़े ये सभी सवाल खड़े हैं.इन सभी मुद्दों पर उनके और उनकी सरकार के रुख़ का आकलन उम्मीद के साथ भी किया जा रहा है और डर के साथ भी.इन्हीं दो विचारधाराओं को समझने के लिए बीबीसी ने बात की मधु किश्वर और कविता कृष्णन से और तीन सवालों पर उनकी राय जानी.मधु किश्वर महिलाओं के मुद्दों की समीक्षा करने वाली मैगज़ीन ‘मानुषी’ की संस्थापक हैं और हाल ही में नरेन्द्र मोदी पर उनकी किताब, ‘मोदी, मुस्लिम्स एंड मीडिया’, प्रकाशित हुई है.वहीं कविता कृष्णन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के संगठन ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वुमेन्स एसोसिएशन (एप्वा) की राष्ट्रीय सचिव हैं और लंबे समय से महिलाओं के मुद्दों पर काम करती रही हैं.आज़ादी पर नकेल


दिसंबर 2012 के निर्मम सामूहिक बलात्कार के बाद महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा के मुद्दे पर कड़े क़ानून की मांग पर सभी राजनीतिक पार्टियां साथ आईं. लेकिन गुजरात में दंगों के दौरान हुई यौन हिंसा के मामलों और ‘स्नूपगेट’ से जुड़े विवाद के संदर्भ में सवाल उठ रहे हैं कि क्या नई सरकार महिलाओं को सुरक्षित महसूस करा पाएगी?

मधु किश्वर – गुजरात में दंगों और उस दौरान हुई यौन हिंसा के बारे में बहुत ग़लत जानकारी फैलाई गई है. इसके पीछे ऐसे लोग हैं जो समाज सेवा की आड़ में दरअसल कांग्रेस के एजेंट हैं.यौन हिंसा के मामलों की सुनवाई गुजरात से बाहर करवाने के पीछे मक़सद न्याय दिलाना नहीं था बल्कि नरेन्द्र मोदी जैसे नेकनीयत वाले इंसान को झूठे मुकदमों में फंसाने और दोषी क़रार देने का, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया.कविता कृष्णननकविता कृष्णनन महिलाओं के मुद्दों पर लंबे समय से मुखर रही हैं.गुजरात महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित प्रदेश है, जहां साल 2002 के बाद कोई दंगे नहीं हुए, जबकि कांग्रेस के प्रशासन के दौर में वहां अकसर दंगे होते थे.गुजरात के किसी भी शहर में लड़कियां देर रात तक गहने पहनकर भी सड़कों पर निकल सकती हैं. यौन हिंसा कहां होगी, जब प्रशासन सुचारू रूप से चलेगा, और यही गुजरात की हक़ीक़त है.
मौजूदा लोकसभा के 543 में से 62 सांसद यानी क़रीब 11 प्रतिशत महिलाएं हैं. इनमें से 30 भारतीय जनता पार्टी की हैं. महिला आरक्षण विधेयक महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बढ़ाकर 33 प्रतिशत करता है. वर्ष 1996 में पहली बार संसद में पेश किए गए इस विधेयक को क्या नई सरकार अपने कार्यकाल में दोनों सदनों में पारित करवाना चाहेगी?मधु किश्वर – नई सरकार अगर महिला आरक्षण विधेयक को इसकी मौजूदा शक्ल में पारित कर भी पाती है तो ये महिलाओं के लिए नुक़सानदेह ही होगा. ‘रोटेशन’ की प्रक्रिया वाले इस विधेयक से असहमति ज़ाहिर करते हुए ‘मानुषी’ ने एक वैकल्पिक विधेयक भी प्रस्तावित किया है.मौजूदा राजनीति में जैसे शरीफ़ मर्दों की जगह नहीं है वैसे ही शरीफ़ औरतों के लिए जगह ऐसे नहीं बनेगी. औरतों की सहभागिता बढ़ने में अगर भ्रष्ट महिलाएं, बहू-बेटी ब्रिगेड या ग़ुंडागर्दी करने वाली नेता राजनीति में आएं तो कोई फ़ायदा नहीं है.महिलाओं के बेहतर प्रतिनिधित्व के लिए चुनाव सुधार लाने की ज़रूरत है. इसका प्रयास राजनीतिक पार्टियों, चुनाव आयोग और आम लोगों को मिलकर करना होगा.कविता कृष्णन – ये सरकार निश्चित तौर पर बहुमत के साथ आई है जो इसे एक अच्छी स्थिति में लाता है और अब महिला आरक्षण विधेयक को पारित ना करने का कोई बहाना नहीं है. इसलिए हमें उम्मीद है कि इस बार विधेयक पारित हो.
पर इससे पहले भी भारतीय जनता पार्टी के पास अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार के तहत मौका था और उन्होंने विधेयक पारित नहीं करवाया.पर मसला किसी एक राजनीतिक पार्टी का नहीं है, सभी पार्टियों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर पूर्वाग्रह मौजूद हैं और साथ ही पार्टियों के ढांचे में ही दिक्कतें हैं.इन्हीं ढांचागत त्रुटियों को दूर करने के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण ज़रूरी है. ताकि महिलाओं को टिकट दिए जाएं और टिकट देने के बाद वो जीतने की अवस्था में भी हों.

Posted By: Abhishek Kumar Tiwari