राजनीतिक दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण शहर था कानपुर. जब भी कोई राजनीतिक पार्टी अस्तित्व में आई तो सबसे पहले उसने कानपुर में अपनी ताल ठोंकी है.

साल 1977 में जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आई) बनाई थी तो पार्टी का पहला अधिवेशन कानपुर में ही किया. साल 1980 में जब भारतीय जनता पार्टी बनी तो उसका पहला अधिवेशन भी कानपुर में ही हुआ था.

इन सब के बावजूद कोई भी राजनीतिक दल पूरे भरोसे के साथ यह दावा नहीं कर सकता था और न कर सकता है कि कानपुर उसका गढ़ है. चाहे कांग्रेस हो, बीजेपी हो या फिर वाम दल, बावजूद इसके की यहाँ लाखों की तादाद में मिल मज़दूर थे.

आज़ादी के बाद के दो-तीन दशकों तक कांग्रेस की ताकत चरम पर थी. लेकिन 1957 से 1977 कांग्रेस का कोई नेता कानपुर से जीत नहीं सका. पार्टी ने हर संभव प्रयास किया कि कोई कांग्रेस का नेता कानपुर से जीते. उन्ही दशकों में एक औद्योगिक नगरी के तौर पर कानपुर का पूरे भारत में वर्चस्व था और एकजुट मज़दूरों के आगे कांग्रेस की एक न चली. कांग्रेस को मुँह की खानी पड़ी.

कानपुर का रंग

होगी जायसवाल की जीत या कानपुर होगा केसरिया

लेकिन आज कानपुर मिलों का एक कब्रिस्तान है. कांग्रेस प्रत्याशी 1999 से लगातार जीत रहे हैं.

1951-52 से हुए हर चुनाव का विश्लेषण कर चुके कानपुर के मनोज त्रिपाठी कहतें है, "आज़ादी के बाद कानपुर संसदीय सीट का चरित्र मज़दूरों के शहर के रूप में उभर कर आया. यहाँ कपड़े की मिलें तो थीं ही, अंग्रेज़ों द्वारा स्थापित की गई चार बड़ी ऑर्डिनेंस फैक्ट्रियां भी थी. लाखों मज़दूर रहते थे यहाँ पर."

मनोज त्रिपाठी के अनुसार देश के पहले चुनाव में कांग्रेस ने हरिहर नाथ शास्त्री को उतारा. वे एक मज़दूर नेता थे और कानपुर से जीत गए.

पर 1957 के चुनाव में एक ट्रेड यूनियन नेता सत्येन्द्र मोहन बनर्जी चुनावी मैदान में बाघ चुनाव निशान के साथ उतरे और अपनी पहली जीत दर्ज की. कानपुर का रंग लाल हो गया.

उन्होंने बताया, "1962 के चुनाव में कांग्रेस ने एक महान क्रांतिकारी विजय कुमार सिन्हा जो आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद के साथी थे, को बनर्जी के ख़िलाफ़ मैदान में उतारा.एकजुट मज़दूरों ने बनर्जी को ही जीत दिलाई."

जनता लहर

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1967 में कांग्रेस ने अपना पैंतरा बदला. बनर्जी के ख़िलाफ़ कांग्रेस के अपने एक बड़े ट्रेड यूनियन नेता गणेश दत्त बाजपाई को खड़ा किया. जीत का मार्जिन काम हुआ पर जीते बनर्जी ही.

कांग्रेस ने अपनी हार मान ली. 1971 के चुनाव में पार्टी ने बनर्जी के खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा किया. वे भारतीय जन संघ के बाबूराम शुक्ल के खिलाफ करीब 90,000 हज़ार मतों से जीत गए.

पर इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की जो लहर चली उसके आगे बनर्जी टिक न सके. जनता पार्टी के मनमोहन लाल जीते. जीत का मार्जिन था, पौने दो लाख वोट. बनर्जी तीसरे नंबर पर आए. दूसरे नंबर पर रहे कांग्रेस के नरेश चन्द्र चतुर्वेदी.

1980 में कांग्रेस ने पूरे देश में वापसी की. कानपुर इससे अछूता नहीं रहा. एक युवा और तेज तर्रार नेता की छवि रखने वाले कांग्रेस के आरिफ मोहम्मद खान ने कानपुर से जीत दर्ज की.

हार का मुँह

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अस्सी का दशक वह दौर था जब भारत में एक के बाद एक लहर आने लगी. दूसरी तरफ कानपुर ने एक औद्योगिक नगरी के तौर पर अपना वजूद खोना शुरू किया. मिलें बंद होने लगी. मज़दूर बेरोज़गार होने लगे. उनकी ताकत छिन भिन्न होने लगी.

कानपुर के इतिहास पर कई किताबें लिखने वाले मनोज कपूर कहते हैं, ''अस्सी के दशक में कानपुर का जो लेबर मूवमेंट था वह छिन्न-भिन्न होने लगा था और सिर्फ कानपुर ही क्यों पूरे देश में लेबर मूवमेंट ख़त्म हो रहा था. एक समय था जब दत्ता सामंत जैसे लोग मुम्बई को हिला देते थे. वह पीढ़ी ख़त्म हो रही थी या ख़त्म हो चुकी थी.''

1984 का चुनाव इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ. कांग्रेस के प्रति सहानुभूति की लहर थी. 1977 में एक बार हार का मुँह देख चुके नरेश चंद्र चतुर्वेदी भारी मतों से जीते.

अगला चुनाव 1989 में हुआ और इस मिलों की नगरी में पहली बार एक वामपंथी पार्टी- सीपीआई (एम) की उम्मीदवार सुभाषिनी अली ने जीत दर्ज की.

त्रिपाठी बताते हैं, "वह जीत सीपीआई (एम) या वामपंथियों की नहीं थी. वह जीत थी वीपी सिंह और राष्ट्रीय मोर्चा की, हार थी राजीव गांधी और कांग्रेस की, दोनों की छवि बोफोर्स घोटाले ने धूमिल कर दी थी."

केसरिया झंडे

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1991 में फिर से लोक सभा चुनाव हुए. हिंदुत्व की लहर उफान पर थी. 1989 में बीजेपी के जगत वीर सिंह द्रोण सुभाषिनी अली से हार गए थे. पर 1991 में द्रोण ने सुभाषिनी अली को हरा दिया. कानपुर में अब लाल की जगह केसरिया झंडे लहरा रहे थे.

द्रोण 1996 और 1998 में भी जीते पर 1999 में कांग्रेस के श्रीप्रकाश जायसवाल से हार गए.

श्रीप्रकाश जायसवाल कानपुर से अपनी जीत की हैट्रिक लगा चुके हैं. फिर मैदान में हैं. इस बार उनके सामने हैं बीजेपी के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक मुरली मनोहर जोशी.

त्रिपाठी कहते हैं, "1999 में श्रीप्रकाश जायसवाल को बीजेपी की गुटबाजी ने जीता दिया. 2004 और 2009 में भी बीजेपी की गुटबाजी उनकी जीत का एक अहम कारण बनी. पर जीतने के बाद जायसवाल ने कानपुर के लोगों के बीच एक अच्छी पकड़ बना ली है. वो लोगों को नाम से जानते हैं."

अब कांटे की टक्कर है. देखना है जायसवाल जीतते हैं या कानपुर का रंग फिर केसरिया होता है.

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