गोरखपुर (ब्यूरो)। देवरिया में इंसेफेलाइटिस के कारकों पर स्टडी कर रही अमेरिका की सेंटर फॅार डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) व नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइसेंज (निमहंस) की टीम को 2017, 18 व 19 में एक-एक मरीजों में वेस्टनाइल वायरस मिला था। हालांकि उनकी रिपोर्ट व सैैंपल आरएमआरसी को नहीं मिले, ताकि उनकी फिर से जांच की जा सके। लेकिन सतर्कता बरतते हुए आरएमआरसी ने जापानी इंसेफेलाइटिस के मरीजों के सैैंपल से वेस्टनाइल की जांच शुरू कर दी। यह अब भी जारी है। अब तक सभी सैैंपल की जांच नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलाजी, पुणे में हुई है।

जेई व वेस्टनाइल में लक्षण समान

आरएमआरसी के मुताबिक जापानी इंसेफेलाइटिस (जेई) व वेस्टनाइल दोनों फ्लेवी फैमिली के वायरस हैं और दोनों की जीन मैपिंग एक जैसी होती है। यह कहना मुश्किल है कि दोनों में ज्यादा खतरनाक कौन है। दोनों ही दिमाग की तंत्रिकाओं पर असर करते हैं। दोनों बीमारी क्यूलेक्स नामक मच्छर के काटने से फैलती है और दोनों में लक्षण भी समान होते हैं।

युगांडा में पहली बार मिला था यह वायरस

वेस्टनाइल वायरस की पहचान सबसे पहले 1937 में युगांडा के वेस्टनाइल जिले में हुई थी। इसलिए इसका नाम वेस्टनाइल रखा गया। यह वायरस पक्षियों और घोड़ों में पाया जाता है। वायरस के कारण घोड़ों की मौत हो जाती है। वायरस से संक्रमित घोड़ा या पक्षी का खून चूसने से मच्छर भी संक्रमित हो जाते हैं और उनके जरिए यह बीमारी मनुष्यों तक पहुंच जाती है।

जो जापानी इंसेफेलाइटिस से पीडि़त होते हैं, उन्हीं के खून व सीरम में वेस्टनाइल की जांच की जाती है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस बीमारी के वाहक मच्छर बहुतायत में हैं, लेकिन अभी तक किसी में इस वायरस की पुष्टि नहीं हुई है। देवरिया में इस वायरस की तस्दीक होने के बाद आरएमआरसी इस पर लगातार नजर रख रहा है।

डॉ। अशोक पांडेय, वायरोलाजिस्ट, आरएमआरसी