-कभी सूखा तो कभी बाढ़ की विभीषिका झेलते हैं किसान

बबुरी (चंदौली): धान के कटोरे में निरंतर पैदावार घटती जा रही है। किसान लगातार कभी सूखा तो कभी बाढ़ की विभीषिका झेलते-झेलते बदहाली के कगार पर पहुंच गए हैं। इस कारण किसानों की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर हो गई है।

एक दशक पूर्व तक जहां किसान मालामाल थे वहीं किसान आज कर्ज के बोझ तले दब गए हैं। क्षेत्र के 97 फीसदी किसानों ने खेती के लिए बैंकों व सहकारी समितियों से कर्ज ले रखा है जिसकी भरपाई करना उनके लिए संभव नहीं हो रहा है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष 25 प्रतिशत किसानों के खाते एनपीए हो जा रहे हैं। किसानों को अपने खेत बेचकर बैंकों का कर्ज चुकता करना पड़ रहा है। खेती का रकबा दिनोंदिन घटता जा रहा है वहीं पैदावार में भी प्रतिवर्ष लगातार गिरावट आ रही है। सबसे अधिक उपज देने वाली धान की प्रजाति एमटीयू 7029 स्वर्ण मंसूरी जिसका उपज प्रति बीघा 20 से 24 कुंतल धान था, कम पानी व समुचित मात्रा में उर्वरक न मिलने से उसकी पैदावार गिरकर 12 कुंतल प्रति बीघा हो गई है।

मेहनत हो जा रही बर्बाद

विभिन्न परिस्थितियों को झेलते हुए अन्नदाता काफी मेहनत से धान व गेहूं की फसल उपजाते हैं, परंतु उसका उचित मूल्य न मिलने के कारण खेती के प्रति

किसानों का रुझान घटता चला जा रहा है। मजदूरों की समस्या भी काफी जटिल हो गई है। इस कारण बड़े किसान खेती करने से कतराने लगे हैं और अपने खेतों को बंटाई पर दे दे रहे हैं।

खर्च 12 हजार, लाभ 5-6 हजार

एक एकड़ की धान की फसल उपजाने में प्रति एकड़ डेढ़ बोरी डीएपी, दो बोरी यूरिया और 30 किलो पोटाश का प्रयोग किया जाता है। इसकी कीमत 3 हजार 7 सौ रुपये प्रति एकड़ खर्च पड़ता है। वहीं धान का बीज 50 रुपये प्रतिकिलो दर से पांच सौ रुपये, बीज डालने में पांच सौ रुपये, रोपाई करने में 22 सौ रुपये, निराई

सोहनी कराने में एक हजार रुपये, मेढ़ बनवाने में 4 सौ रुपये, ¨सचाई करने

में एक हजार रुपये और कटाई कराने में 3 हजार रुपये प्रति एकड़ खर्च पड़ता है। किसानों द्वारा उत्पादित धान की बाजारू कीमत 18 से 20 हजार रुपये मिलती

है। इस प्रकार प्रति एकड़ साढ़े 12 हजार खर्च करने के बाद 5-6 हजार रुपये प्रति एकड़ किसानों को लाभ हो पाता है।

पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर

अधिकतर किसान खेती के लिए पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर रहते हैं, सूखे व बाढ़ का दंश झेलने के साथ साथ किसान पांच महीने अपने खेतों में लगातार श्रम करने के बावजूद बचत के नाम पर चंद रुपये ही उसे बच पाता है।

वहीं गेहूं की खेती करने में 15 सौ रुपये का बीज, दो हजार रुपये की डीएपी, 7 सौ रुपये का यूरिया, 4 सौ रुपये का पोटास, एक हजार रुपये जोताई, एक हजार रुपये ¨सचाई और 12 सौ रुपये कटाई में खर्च आता है। वहीं खरपतवार नाशक दवा का प्रयोग करने में पांच सौ रुपये खर्च हो जाता है। लगभग 8 कुंतल प्रति एकड़ गेहूं की उपज होती है जिसकी कीमत 12 हजार रुपये प्रति एकड़ उपज की कीमत मिलती है। इस प्रकार गेहूं की खेती करने में 7 हजार 8 सौ रुपये प्रति एकड़ का खर्च आता है। इसी मुनाफे से किसानों को पूरे वर्ष खाना, कपड़ा और मकान की भी ¨चता सताई रहती है।

कई वर्षो से हो रही बर्बाद

दैवीय आपदा के चलते पिछले कई वर्षों से किसानों की फसलें लगातार बर्बाद होती चली आ रही हैं। इससे उनका मूल्य भी नहीं निकल पा रहा है। लगातार घाटे की खेती के चलते किसान कर्ज के बोझ के तले दब गए हैं। बेटी की हाथ पीले करने और अन्य कार्यों के लिए जमीन बेचने के सिवाए उनके पास कोई रास्ता नहीं बचता

है। क्षेत्र का शायद ही कोई ऐसा किसान हो जिनके ऊपर बैंकों व सहकारी संस्थाओं का कर्ज न हो।

नील गायों का है आतंक

क्षेत्र में पहले बड़े पैमाने पर दलहन और गन्ने की खेती होती थी। नील गायों के आतंक के चलते पूरी फसलें चट कर जाती थीं। इस कारण किसान दलहन और गन्ने की खेती पूरी तरह बंद कर दी है।

दम तोड़ रही नहर

क्षेत्र के किसान दिनेश सिंह, तेजबहादुर, अर¨वद, रामजी तिवारी, हरिपाल, रामचंद्र

पांडेय आदि ने बताया कि 1967 में ¨सचाई के लिए जो नहरें बनाई गई थी। वह

रखरखाव के अभाव में दम तोड़ रही हैं। इसके बाद न तो कोई नई नहर की खोदाई हुई और न ही नहरों का विस्तार किया गया। प्रतिवर्ष प्रकृति की मार झेलने के चलते खेती अब बोझ बन गई है। एक दशक में उर्वरकों के दामों में 3 सौ प्रतिशत

की वृद्धि हुई है। वहीं डीजल के दामों में भी तीन सौ प्रतिशत की वृद्धि की गई है। इसके अलावा कृषि उत्पादन का मूल्य एक दशक पूर्व जितना था उससे भी घट गया है। काफी लागत बढ़ने व उत्पादन मूल्य न बढ़ने से खेती किसानों के लिए बोझ बन गई है। शासन ने समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दिया तो किसान घाटा झेलते-झेलते खेती करने स्वत: बंद कर देंगे। आर्थिक गुलामी के चलते आत्महत्या करने जैसा कदम उठाने को विवश हो रहे हैं।

फोटो परिचय 20 सीएचए05 से 10 तक।