25 आरएसएच 1, 2, 3-

क्त्रढ्ढस्॥ढ्ढयश्वस्॥ (छ्वहृहृ, 24 स्द्गश्चह्ल):

'गंगा में ही उपजे, गंगा में ही रमे और गंगा किनारे ही लीन हो गए' अगर एक वाक्य में पूछा जाए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आध्यात्मिक गुरु संत स्वामी दयानंद सरस्वती के बारे में यही बात कही जा सकती है। वेदांत व उपनिषदों के ज्ञाता ब्रह्मालीन संत दयानंद को फ्राइडे को उनकी इच्छानुसार गंगा तट स्थित आश्रम परिसर में विधि-विधान के साथ भू-समाधि दी गई। गंगा किनारे भू-समाधि लेने की इच्छा उन्होंने कुछ समय पहले ही अपने शिष्यों से जता दी थी। इस मौके पर हजारों श्रद्धालुओं सहित कई हस्तियां मौजूद थी।

सुबह से ही शुरू हो गए थे दर्शन

दस दिन से हॉस्पिटल में जीवन-मृत्यु का संघर्ष कर रहे दयानंद आश्रम शीशमझाड़ी मुनिकीरेती के संस्थापक 86 वर्षीय संत स्वामी दयानंद सरस्वती को शायद अपनी अंतिम बेला का आभास हो गया था। इसी कारण वेडनसडे मॉर्निग उन्होंने खुद को अस्पताल से आश्रम ले जाने की इच्छा जताई और वहीं पर रात में उनका देहावसान हो गया था। फ्राइडे मॉर्निग में सुबह सात बजे अनुयायियों के दर्शनार्थ सत्संग हॉल में रखे गए स्वामीजी के पार्थिव शरीर को देखने के लिए लंबी लाइनें लग गई।

शास्त्रविहित परंपरा की गई पूरी

दर्शनों के दौरान ही पार्थिव शरीर को भू-समाधि के लिए ले जाने से पूर्व शास्त्रविहित परंपरा शुरू की गई। करीब साढ़े आठ बजे उनके पार्थिव शरीर को समाधिस्थल के समीप लाया गया, जहां दक्षिण भारत से आए पंडितों व विद्वानों की उपस्थिति में दयानंद आश्रम गंगाधरेश्वर ट्रस्ट के मैनेजिंग ट्रस्टी स्वामी शुद्धानंद सरस्वती ने महासमाधि से पूर्व की सभी परंपराओं का कार्य निर्वहन किया। रुद्राभिषेक व वेद मंत्रोच्चारण के साथ ब्रह्मालीन संत का अभिषेक हुआ।

सुबह साढ़े दस बजे दी भू-समाधि

प्रात: करीब साढ़े दस बजे उन्हें भू-समाधि दी गई। इस मौके पर देश के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि विदेशों में रहने वाले उनके सैकड़ों अनुयायी यहां पहुंचे थे। सभी ने अपने गुरु को पुष्प अर्पित करने के साथ समाधि में मृदा डालकर अंतिम विदाई दी। आश्रम के ट्रस्टी स्वामी शांतात्मानंद सरस्वती सहित यहां रह रहे संतों ने भी उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किए।

मौजूद रहे हिंदुत्व से जुड़े नाम

ब्रह्मालीन संत के पार्थिव शरीर पर पुष्पांजलि अर्पित करने वालों में हिंदुत्व से जुड़े बड़े नाम भी मौजूद रहे। इनमें विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक सिंघल, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले, भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री राम माधव, विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय संगठन महामंत्री दिनेश, राष्ट्रीय मंत्री कोटेश्वर राव, विजयवाड़ा के सांसद गंगराजू, विहिप नेता राजेंद्र पंकज, पूर्व केंद्रीय गृह राज्यमंत्री स्वामी चिन्मयानंद, साध्वी प्राची, आचार्य सभा के राष्ट्रीय संयोजक स्वामी परमात्मानंद सरस्वती व महामंडलेश्वर महंत ईश्वर दास आदि शामिल थे। इसके अलावा कुंभ मेला अधिकारी एस। मुरगेशन, पालिकाध्यक्ष ऋषिकेश दीप शर्मा, मुनिकीरेती शिवमूर्ति कंडवाल, महंत विनय सारस्वत आदि भी मौजूद रहे।

शांकर परंपरा के साथ हुए लीन

समूचे विश्व में वेदांत के प्रचारक रहे स्वामी दयानंद सरस्वती को शांकर परंपरा के अनुसार भू-समाधि दी गई। दशनाम सन्यासी ब्रह्मालीन संत की जन्मस्थली दक्षिण भारत रही है। वहीं उन्होने अपने गुरु स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती से सन्यास की दीक्षा ली थी। दक्षिण भारत के पुरोहित यहां बुलाए गए। स्वामीजी के अभिषेक में सभी तीर्थो के जल के साथ विशेष रूप से रामेश्वरम से जल लाया गया था। पंचगव्य से स्नान कराया गया। शिव के प्रतीक विभूति, पृथ्वी के प्रतीक नमक, अग्नि के प्रतीक चारकोल व हल्दी समाधि में मिलाई गई। पूरबमुखी अवस्था में ब्रह्मालीन संत को बिठाया गया। स्वामीजी के साथ लंबा समय बिताने वाले आचार्य सभा के राष्ट्रीय संयोजक स्वामी परमात्मानंद सरस्वती ने बताया कि शांकर परंपरा में संत के शरीर को देवालय के रूप में देखा जाता है। इसीलिए शिवलिंग के साथ पूजा का विधान है।

वेदांत सेवा में बिता दिया पूरा जीवन

स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने जीवन में कभी भी अपने प्रचार की बात नहीं की। वह खामोशी के साथ वेदांत और अध्यात्म की सेवा में लगे रहे। पातंजलि सूत्र पर बोलने वाले उत्तराखंड के प्रमुख संतों में वह शामिल थे। उन्होंने देश भर में बंदी के कगार पर पहुंचे 200 से अधिक वेद पाठशालाओं को पुनर्जीवित किया। खामोश होकर वह अपने सक्षम अनुयायियों से उनका संचालन करवाते थे। अंग्रेजी साहित्य से स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण करने वाले स्वामी दयानंद सरस्वती ने साढ़े तीन साल में वेद व अध्यात्म से जुड़े करीब आठ कोर्स पूरे किए। स्वामी परमात्मानंद सरस्वती बताते हैं कि उन्होंने वेदांत के प्रचार प्रसार के लिए पढ़े-लिखे लोगों को ही शिष्य बनाया। यही सैकड़ों लोग आज देश-विदेश में वेदांत का ज्ञान बांट रहे हैं। ब्रह्मालीन संत मूलत: शिक्षक की भूमिका में रहते थे। ऋषिकेश में ब्रह्मासूत्र पर ही वह ज्यादा बोलते थे।