सौम्य छवि उनकी सफलता का बड़ा कारण है. सच यह भी है कि शीला दीक्षित को उस प्रकार के कठोर राजनीतिक विरोध का सामना नहीं करना पड़ा जैसा विरोध नरेंद्र मोदी को झेलना पड़ा.

साथ ही भौगोलिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और आर्थिक हर लिहाज़ से दिल्ली खुशहाल राज्य है, जहाँ समस्याएं अपेक्षाकृत कम हैं.

आकार को देखते हुए उसके पास साधनों की कमी नहीं. क़ानून-व्यवस्था की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की नहीं. शिक्षा के ज़्यादातर संस्थान केंद्रीय हैं.

राजधानी में रहने वालों में बड़ी संख्या केंद्रीय कर्मियों की है जिनके वेतन-भत्ते केंद्र सरकार देती है.

बदले में वे ख़ुद कई तरह के टैक्स दिल्ली सरकार को देते हैं.

'सिर्फ फीता काटने का काम'

इसीलिए 29 सितंबर को जापानी पार्क की रैली में  नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि दिल्ली की मुख्यमंत्री को फीता काटने के अलावा कोई काम नहीं है.

लेकिन मोदी के उपहास का जवाब शीला दीक्षित ने कड़े शब्दों में नहीं दिया. यह बात उनके पक्ष में जाती है. वो देश के सबसे सौम्य नेताओं में से एक हैं.

अलबत्ता राहुल गांधी ने अपनी रैली में शीला दीक्षित सरकार की जमकर तारीफ की.

मेट्रो, आधुनिक एयरपोर्ट, बेहतरीन परिवहन व्यवस्था, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति आदि का ज़िक्र करते हुए राहुल ने कहा कि 15 साल में शीला दीक्षित की अगुवाई में दिल्ली ने खूब विकास किया है.

दिल्ली में 130 फ्लाई ओवर और ओवरब्रिज बनाए गए हैं. विश्वविद्यालयों में युवाओं के लिए 50 हज़ार सीटें उपलब्ध कराई गई हैं.

शीला दीक्षित: चौथी जीत कितनी मुश्किल?

सैकड़ों अनधिकृत कॉलोनियों को नियमित किया गया और 45 पुनर्वास कॉलोनियों को मालिकाना हक़ दिया गया.

शीला का राजयोग

काफी काम  शीला दीक्षित के कौशल से हुआ, पर वो भाग्यशाली भी रहीं. परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि सब कुछ उनके पक्ष में होता चला गया.

एक ज़माने में दिल्ली भाजपा का गढ़ होता था, पर कुछ अंदरूनी कलह ने और कुछ वक़्त ने इस पार्टी के साथ धोखा किया.

दिल्ली को दोबारा विधान सभा मिलने के बाद साल 1993 में जब चुनाव हुए तो भारतीय जनता पार्टी को ज़बरदस्त जीत मिली थी.

उसे 70 में से 49 और कांग्रेस को 14 सीटें मिलीं. मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री बने. लेकिन हवाला मामले में नाम आने पर उन्हें पद छोड़ना पड़ा. उनकी जगह साहिब सिंह वर्मा आए.

प्याज़ की कीमतों और अंदरूनी झगड़ों ने उन्हें भी नहीं चलने दिया. साल 1997 में  सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बनाया गया.

लेकिन 1998 के चुनाव में पार्टी बुरी तरह हारी. कांग्रेस को 51 और भाजपा को 15 सीटें मिलीं. प्याज़ की क़ीमतों ने सुषमा के नेतृत्व में खड़ी भाजपा को भी हराया.

आउटसाइडर

शीला दीक्षित दिल्ली के लिए आउटसाइडर थीं. सन 1998 का वह साल उनके लिए उतार-चढ़ाव से भरा था. साल के शुरू में वे पूर्वी दिल्ली से लोकसभा का चुनाव हारी थीं.

यह वह समय था जब कांग्रेस पार्टी  सोनिया गांधी के नियंत्रण में आई थी.

शीला दीक्षित को दिल्ली कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया और साल का अंत होते-होते विधान सभा चुनाव में उन्हें भारी सफलता मिली.

सोनिया गांधी को बाद में मिली राजनीतिक सफलता में दिल्ली का बड़ा हाथ है.

शीला दीक्षित: चौथी जीत कितनी मुश्किल?

और सोनिया गांधी का वरदहस्त होने के कारण शीला दीक्षित को अपने प्रतिद्वंद्वियों से निपटने में कभी दिक़्क़त नहीं हुई.

भाजपा के दुर्योग और शीला दीक्षित के राजयोग ने उन्हें साल 1998 में कुर्सी दिलाई. साल 2002 में दिल्ली में मेट्रो आई.

भले ही उसकी योजना बनाने में केंद्र सरकार की भूमिका भी रही हो, जो उस समय भाजपा के नेतृत्व में थी. लेकिन साल 2003 के विधानसभा चुनाव में मेट्रो का फायदा मिला शीला दीक्षित को.

बदल डाली दिल्ली की सूरत

मेट्रो बनते समय मदन लाल खुराना करोलबाग की बिल्डिंगों को गिराने से बचाने की मुहिम के नाम पर मेट्रो का विरोध कर रहे थे. इस तरह वो इतिहास की विपरीत धारा में खड़े हो गए.

इसके बाद साल 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर दिल्ली में ज़बरदस्त निर्माण कार्य शुरू हुए. इसका श्रेय भी शीला को मिला.

साल 2008 का चुनाव वो फिर जीतीं. इस लिहाज से शीला दीक्षित के सारे ग्रह-नक्षत्र अच्छे थे. ऊपर से उनकी जनसंपर्क की कला.

लेकिन क्या वो फिर जीतेंगी? या नामुराद प्याज़ इस बार उनके लिए ख़राब संदेश लेकर आ रहा है? सुषमा स्वराज का ख़याल है कि प्याज़ शीला जी को भी रुलाएगा.

लेकिन मामला प्याज़ तक सीमित नहीं है. पिछले तीन साल से दिल्ली आंदोलनों की चपेट में है. अन्ना हज़ारे से लेकर गैंग रेप तक.

इस आंदोलनकारी माहौल में  आम आदमी पार्टी खड़ी हो गई. इसे शीला दीक्षित के लिए अपशकुन माना जाता, लेकिन दूसरी नज़र में लगता है कि अपशकुन तो यह भाजपा के लिए है.

आप की चुनौती

वोट तो कांग्रेस विरोध के कटेंगे. तो क्या शीला जी के सितारे अब तक बुलंद हैं?

वो सफल तभी मानी जाएंगी जब व्यक्तिगत रूप से अरविंद केज़रीवाल को हराएंगी. लेकिन वो ‘आप’ को हल्के में नहीं ले रही हैं.

शीला दीक्षित: चौथी जीत कितनी मुश्किल?

उनका कहना है कि केजरीवाल को पूरी तरह नकार नहीं सकते. जनता की यह समझ बनती है कि तीन बार इनको देख लिया अब किसी और को आज़माया जाए तो कुछ भी संभव है. वो काफी कॉन्फिडेंट हैं और नर्वस भी.

साल 2011 में जब कॉमनवेल्थ गेम्स पर सीएजी रिपोर्ट को लेकर उन पर दबाव बनाया गया तो पार्टी ने उनका साथ दिया. लेकिन उनकी सफलता का कारण केवल राजनीतिक समर्थक नहीं रहा.

नरेंद्र मोदी की तरह उन्हें भी अच्छे प्रशासन का श्रेय दिया जा सकता है.

उनके भागीदारी कार्यक्रम ने दिल्ली की रेज़ीडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों को अपने साथ लेकर उन्हें लोकप्रिय बनाया. इसके अलावा दिल्ली ने ई-गवर्नेंस की शुरुआत काफी पहले कर दी थी.

जनसंपर्क में कुशल

उन्होंने स्वयं को सफल साबित करने के लिए अच्छी पीआर एजेंसियों का सहारा भी लिया.

कुछ समय पहले जब दिल्ली में बस रैपिड ट्रांज़िट (बीआरटी) कॉरीडोर को लेकर सरकार अलोकप्रिय हो रही थी सरकार ने फिर इन एजेंसियों का सहारा लिया.

हाल में प्याज़ को लेकर सबसे ज़्यादा परेशान दिल्ली सरकार ही थी, जिसने सस्ता प्याज़ उपलब्ध कराने की हर कोशिश की है.

इस प्रचार-प्रियता के कारण वो दिक्कत में भी आ गईं हैं. साल 2009 में एक वकील ने उन पर आरोप लगाया कि केंद्र सरकार ने राजीव रतन आवास योजना के लिए जो 3.5 करोड़ रुपए दिए थे उनका उन्होंने व्यक्तिगत प्रचार के लिए उपयोग किया है.

यह मामला अदालत गया है और उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने के आदेश हुए हैं.

जेसिका लाल हत्याकांड के आरोपी मनु शर्मा को पैरोल पर एक महीने के लिए रिहा किए जाने पर भी उनके फ़ैसले को लेकर आलोचना हुई थी.

सवालों के घेरे

राष्ट्रमंडल खेलों में धन के अनुचित इस्तेमाल को लेकर भी वो सवालों के घेरे में हैं.

कॉमनवेल्थ घोटाले को लेकर शोरगुल होने के बाद शीला दीक्षित को हटाने के लिए भी दबाव बना, लेकिन विपक्षी दल और ख़ुद उनकी अपनी पार्टी के भीतर बैठे उनके विरोधी सफल हो नहीं पाए.

शीला दीक्षित को इस बात का श्रेय जाता है कि जब कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी पूरी नहीं हो पा रही थी और तब खेल गाँव का काम पूरा कराने की ज़िम्मेदारी उन्होंने ख़ुद ली और तकरीबन हर रोज़ मौके पर जाकर काम कराया.

सोनिया के साफ समर्थन के अलावा दिल्ली की कांग्रेस पार्टी में शीला दीक्षित के विरोधियों के बीच से ऐसा नाम उभर कर नहीं आया जो उनकी जगह ले पाता. न तो जेपी अग्रवाल और न अजय माकन इस स्थिति में थे कि उनकी जगह ले पाते.

कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान कुछ बातों से उनके और उप राज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना के बीच मतभेद दिखाई पड़े. अंततः उप राज्यपाल बदल दिए गए.

गांधी परिवार से नज़दीकी

शीला दीक्षित के मायके की पृष्ठभूमि राजनीतिक नहीं थी. उनका विवाह आईएएस अधिकारी विनोद दीक्षित से हुआ, जो स्वयं राजनीति में सक्रिय नहीं रहे.

शीला दीक्षित: चौथी जीत कितनी मुश्किल?

विनोद के पिता उमा शंकर दीक्षित सक्रिय राजनीति में थे. वो पहले नेहरू जी के विश्वस्त थे और साल 1969 में जब कांग्रेस का विभाजन हो रहा था उन्होंने इंदिरा गांधी का साथ दिया.

साल 1971 में वो इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में शामिल हुए तो उनकी व्यस्तता बढ़ गई.

ऐसे समय में शीला दीक्षित ने उनकी सहायता की. उनका सौम्य व्यवहार और सुघड़ काम-काज उनके काम आया.

इस दौरान उन्होंने यंग वीमैन्स एसोसिएशन के मार्फत सामाजिक कार्यों में हिस्सेदारी बढ़ाई.

इंदिरा गांधी की निगाह उन पर पड़ी और साल 1984 में महिलाओं की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र आयोग में उन्हें भारत के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया गया.

राजनीतिक सफ़र

साल 1984 के लोकसभा चुनाव में वो कन्नौज सीट से चुनाव भी जीतीं.

साल 1986 में राजीव गांधी की सरकार में वो पहले संसदीय मामलों की राज्य मंत्री बनीं और फिर उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय का अतिरिक्त प्रभार मिल गया.

साल 1987 में उनके पति का ट्रेन यात्रा करते समय दिल का दौरा पड़ने से देहावसान हो गया. वह समय उनके लिए मुश्किल था.

पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण उनके संपर्क बनते गए और अपने कौशल से वो सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ती गईं. दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उन्होंने साल 1998 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस को जीत दिलवाई.

वर्षों के अनुभव ने उन्हें राजनीति के दांव-पेंच भी सिखा दिए हैं. व्यक्तिगत जीवन में वे आत्म-निर्भर और आत्मविश्वासी महिला हैं. लगातार तीन बार मुख्यमंत्री पद पर जीत दर्ज करना उनकी उपलब्धि है.

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