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न कोच, न मैदान फिर भी जिद

पटना सिटी नई सड़क के आसपास शफा और उसकी 20 सहेलियां रहती हैं। ये सभी गरीब परिवार से हैं। सभी की उम्र 10 से 15 साल के बीच है। ये जिस परिवार से वास्ता रखती हैं वहां बाल विवाह मजबूरी है। शफा बताती है कि साहब, हम इतने गरीब घर से है जहां लड़की की 11 साल की उम्र में कदम रखते ही पिता को बोझ लगने लगती है। पिता को उसके भरण-पोषण से लेकर इज्जत-आबरू तक चिंता सताने लगती है। ऐसे में पिता भी बेचारा क्या करे? उनके पास बाल विवाह करने के अलावा कोई रास्ता नहीं दिखता। अपने अब्बू से कहा है कि मेरी शादी की चिंता न करें, मैं एक दिन बड़ी खिलाड़ी बनूंगी।

कोई नहीं करते मदद

मुस्कान कहती हैं कोच तो दूर की बात हमारे पास फुटबाल खरीदने तक के पैसे नहीं है। लेकिन, जिद है बाल विवाह की आग में खुद को जलने नहीं देंगे। खेलने के लिए जूते नहीं है। हर दिन हमारे पांव जख्मी हो जाते हैं लेकिन वह थमते नहीं। क्योंकि इन नन्हें पांव को भी पता है कि वे जिस दिन थम जाएंगे उस दिन इसमें पायल बांध दी जाएगी और विदा कर दिया जाएगा एक अनजान दोगुने उम्र के आदमी के साथ।

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मानो पिजड़ा खुल गया हो

ईजाद की अख्तरी बेगम बताती हैं कि इन लड़कियों ने घर से लेकर मैदान तक संघर्ष किया। शफा जब पहली बार मिली, तब वह घबरायी हुई थी। उसे एक ही डर सता रहा था कि कहीं निकाह न कर दिया जाए। वह पढ़ना चाहती थी। उसके आंखों में पल रहे सपने को देख हमलोगों ने फुटबाल कैंप में सीखने के लिए भेजा। वहां उसने जमकर मेहनत की और कहा दीदी मुझे जीवन का मकसद मिल गया। क्या आप मुझे एक फुटबाल खरीद दोगे? उसके इस सवाल ने हमारी आंखें नम कर दी। मैंने उससे कहा बेटा कल ले आऊंगी। मैं अगले दिन फुटबाल लेकर पहुंची तो उसके खुशी का ठिकाना नहीं रहा। ऐसा लगा जैसे किसी कैद चिडि़या का पिंजड़ा खोल दिया गया हो।

मैदान के लिए लिए लड़ी लड़ाई

वह अपने 4 सहेलियों के साथ सरकारी स्कूल के खेल मैदान पहुंची। वहां खेल रहे लड़के लड़कियों को देखते ही वहां से भगा दिया। शफा को लगा शायद कुदरत ने ही उसके नसीब में कैद लिख दिया है, लेकिन दूसरे ही पल उसके जिद्दी दिमाग कहा नहीं मुझे हार नहीं मानना है। मैं खेलूंगी।