‘आम आदमी पार्टी’ भारत में राजनीतिक पार्टी निर्माण के प्रचलित और स्वीकृत सिद्धांतों का अतिक्रमण करते हुए अस्तित्व में आई है.


विचारधारा, प्रादेशिक पहचान और फिर सामाजिक अस्मिताओं के नाम पर राजनीतिक दल का जन्म लेना भारत में स्वाभाविक माना जाता रहा है. लेकिन किसी सामाजिक आंदोलन के गर्भ से राजनीतिक दल का जन्म अपवाद-सा ही है.बीच-बीच में ऐसी कमज़ोर कोशिशें होती रही है, लेकिन उसमें जो हिचकिचाहट रही है उसने उसे मुख्यधारा की संसदीय राजनीति की कीचड़ में कूद पड़ने से रोक लिया है.ऐसे आंदोलनों से जुड़े लोग पांयचे उठाकर यह राजनीति करना चाहते रहे हैं. वे अपनी आंदोलनकारी छवि को पर्याप्त समझते रहे और यह माना कि जनता को उनकी श्रेष्ठता से प्रभावित होकर उन तक ख़ुद आना चाहिए.‘आम आदमी पार्टी’ के प्रसंग में पहली बार देखा गया कि एक सामाजिक आंदोलन ने अपनी ऊर्जा का संसदीय राजनीति में हस्तक्षेप के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की. और इस बार हिचकिचाहट नहीं थी. फिर लोगों ने भी समझा कि यह खेलने लायक दाँव है.


'वास्तविक ख़तरा'शिक्षा और संस्कृति की भी  राजधानी होने का दावा करने वाली देश की राजधानी दिल्ली में आम आदमी पार्टी की बढ़ती स्वीकृति औरों की तरह उसके लिए भी सोचने लायक ज़रूर है.65 साल के अपने सफ़र के बाद भारत की संसदीय राजनीति जिस गतिरोध में फँस गई जान पड़ती है, जिस तरह वह वैश्विक आर्थिक तर्क के आगे असहाय मालूम पड़ने लगी है, उससे निकलने के लिए क्या हमारे पास अभी यही एक रास्ता है?क्या अब इस पार्टी के रूप में हमें एक प्रामाणिक व्यवहारवादी दल मिल गया है जो विचारधारात्मक अमूर्तता के चक्कर में पड़ना नहीं चाहता?दिल्ली के चुनाव के नतीजे के बाद एक बार फिर हमें अपने अभी लगाए आगे कयासों का इम्तिहान करने का मौक़ा मिलेगा.


दिल्ली विधानसभा चुनाव में अब तक जो गंभीर सर्वेक्षण हुए हैं, उनमें  आम आदमी पार्टी, जिसकी उम्र बमुश्किल एक साल की है, संसदीय राजनीति के दाँव-पेंच में माहिर दो दलों के मुक़ाबले में दिखाई जा रही है.

पहले उसे ध्यान देने योग्य न मानने वाले दोनों प्रमुख दल अब उस पर हमला कर रहे हैं क्योंकि वह उन्हें एक वास्तविक ख़तरा मालूम पड़ रही है.हैरतअंगेज़ तरीके से उसने दिल्ली के लगभग हर वार्ड में अपनी समितियां बना ली हैं और चुनाव प्रचार में उसकी मौज़ूदगी आक्रामक है. समाज के ऐसे तबकों से उसके कार्यकर्ता निकल आए हैं जो अब तक संसदीय राजनीति के दर्शक रहे थे.भारत में राजकीय योजना तंत्र के निरंतर विस्तार के साथ सरकार का भी विस्तार होता जा रहा है. ऐसी हालत में आज से 20 साल पहले के मुक़ाबले आज के नागरिक के लिए प्रशासन उसकी रोज़ाना की ज़िंदगी का कहीं बड़ा हिस्सा हो गया है.अतिसरलीकरणभ्रष्टाचार इन योजनाओं के कारण अब ज़्यादा बड़े हिस्से को महसूस होने वाली हक़ीक़त बन गया है.उसे मात्र मध्य वर्ग का मुद्दा समझना भोलापन ही है. यह ठीक है कि भ्रष्टाचार अनेक जटिल आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को एक साथ आसानी से समझ लिए जाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला सरलीकृत शब्द है.लेकिन इसके जरिए ‘आम आदमी पार्टी’ ने ज़्यादा बड़े जन समूह से राजनीतिक चर्चा करने का रास्ता खोज लिया है.
आम आदमी पार्टी ने अमूर्त आर्थिक और राजनीतिक भाषा की जगह बिजली, पानी, स्कूल और अन्य नागरिक सुविधाओं के बारे में बात करना तय किया है जिनकी परेशानियों से आम जन रोज़ जूझता है.इनके सिलसिले में पार्टी की ओर से कुछ अतिवादी दावे भी किए जा रहे हैं लेकिन जनता अभी इसे इतनी छूट देने को तैयार दिखती है.यह टिप्पणीकार ख़ुद आम आदमी पार्टी के  संस्थापक का आलोचक ही रहा है और जिस तरह उन्होंने भ्रष्टाचार विरोधी ‘अन्ना आंदोलन’ चलाया, उसकी प्रशंसा कर पाने में वो असमर्थ रहा हैं.‘आम आदमी पार्टी’ नाम और उसकी ट्रेडमार्का टोपी भी उसके सौंदर्यबोध को क़बूल नहीं हो पाई है.इस पार्टी ने भी जिस तरह सिर्फ एक ‘त्यागी’ और स्वच्छ छवि वाले एक पूर्व आयकर अधिकारी को ही अपना एकमात्र प्रतीक बना लिया है उससे इसके लोकतांत्रिक होने में संदेह होना स्वाभाविक है.आम आदमी पार्टी की भाषा और संदेश में अतिसरलीकरण है, मसलन उसके इस दावे में कि जीतने पर 25 दिसंबर को रामलीला मैदान में वह लोकपाल संबंधी क़ानून पारित करेगी.यह कुछ वैसा ही है जैसा ‘अन्ना आन्दोलन’ के दौरान टीवी पर एक बातचीत में इस पार्टी के दो नेताओं ने कहा था कि क़ानून पाँच मिनट में बनाए जा सकते हैं.
‘आम आदमी पार्टी’ के प्रचार में भी सस्ती और भड़काऊ भाषा का खुलकर इस्तेमाल किया गया और विरोधी पर बहुत घटिया ढंग से वार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं रही.कयासों का इम्तिहानसंदिग्ध सामाजिक मूल्यों वाले व्यक्तियों और समूहों से समर्थन लेने में भी इसे गुरेज नहीं रहा है. यह जनता की निम्नतम वृत्तियों को उत्तेजित करके उसका लाभ उठाने से परहेज़ नहीं करती.यह हाल की उस घटना से साफ़ हुआ जिसमें इसकी फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाली, सुसंस्कृत नेता अपनी एक सभा में हिन्दी में अपने प्रचारक वक्ता की दी गई गाली का खुलकर मज़ा लेती देखी गईं.उसी तरह रोज़मर्रापन से ऊपर उठकर राजनीति और व्यापक जीवन के बारे में अब तक इसने कोई वक्तव्य नहीं दिया है.ऐसे मुद्दों पर, जिन्हें लेकर समाज में द्वंद्व हो सकता है, यह दबी जुबान में बात करती है और शायद चाहती है कि मीडिया उसे नज़रअंदाज कर दे तो बेहतर है.कुल मिला कर कहा जा सकता है कि अब तक इस पार्टी ने ऐसा कोई प्रमाण नहीं दिया है कि इसकी महत्वाकांक्षा जनता का नेतृत्व करने की है और इसके लिए वह जनता की कुछ मान्यताओं की आलोचना भी कर सकती है. वह जनता की असुरक्षाओं और उसके बेसब्री से मज़बूत होकर उसका अनुकरण करने वाली ही साबित हुई है. Posted By: Satyendra Kumar Singh