Commercial होने में बुराई नहीं लेकिन...
कला और कमाई भले ही यह दोनों अलग-अलग हों लेकिन गुजरते समय के साथ अब इनमें एक गहरा रिश्ता हो गया है. सिनेमा का शुरुआती दौर गोल्डन पीरियड था. उस समय फिल्में बनाने वाले कला प्रेमी, साहित्यकार हुआ करते थे लेकिन अब इस फील्ड में बिजनेसमैन उतर आए है. एक समय था जब फिल्मों के विषय सामाजिक बुराइयों, कुरीतियों से संबंधित होते थे. यही नहीं समाज में फैली भ्रांतियों और सामाजिक कुप्रथाओं पर चोट करने का सशक्त माध्यम थीं फिल्में. क्योंकि फिल्में दर्शकों से सीधा संवाद करती हैं लेकिन आज ऐसा नहीं है.
फिल्मों के साथ-साथ कुछ ऐसा ही ट्रेंड गानों में भी शुरु हो गया है. आजकल के गानों में शोर ज्यादा होता है मगर उनके बोल समझ में नहीं आते हैं. पहले के डायरेक्टर उस गाने को चुनते थे जो सिचुएशन पर फिट बैठते थे. फिर उसके बाद ही उनको फिल्म में डाला जाता था. मगर आज इसका उल्टा है. फिल्म की सिचुएशन तो बहुत दूर की बात है, फिल्म को हिट कराने के लिए उसमें आइटम नम्बर डाले जाते हैं, ताकि अगर स्टोरी दर्शकों को अपनी ओर न खींच सकें तो कम से कम आइटम नम्बर देखने के लिए ही दर्शक खिंचे चले आएं, जिसको देखो आज वह गानों में मुन्नी और शीला मांगता है या फिर फिल्म हिट कराने के लिए गालियों का सहारा ले रहा है. बॉक्स ऑफिस पर कितनी कमाई की है..अब डायरेक्टर्स को सिर्फ एक ही चीज से मतलब है फिल्म हिट हो और कमाई ज्यादा हो. यही वजह है कि पहले दर्शकों की भीड़ देख कर कहा जाता था कि फिल्म हिट है. अब यह देख कर फिल्म को हिट कहा जाता है कि उसने बॉक्स ऑफिस पर कितनी कमाई की है. कॉमर्शियल होना बुरा नहीं है लेकिन पैसा कमाने के लिए एक स्तर से नीचे गिर जाना बुरा है. ऐसा नहीं है कि सब डायरेक्टर्स ही इसी ट्रेंड की तरफ भाग रहे हैं आज भी बहुत से डायरेक्टर्स ऐसे हैं जो समाज को बेहतरीन फिल्मों से रू-ब-रू करा रहे हैं.
उनकी फिल्में हिट भी हो रही हैं. और वो पैसा भी कमा रहे हैं मगर ऐसे डायरेक्टर की गिनती कम है. यही वजह है कि श्याम बेनेगल और गोविंद निलहानी जैसे डायरेक्टर्स के पास आज फिल्में नहीं हैं और वह खाली बैठे हैं, क्योंकि इन्होंने फिल्मों के साथ कंप्रोमाइज नहीं किया. यह डायरेक्टर समाज को एक अच्छी फिल्म तो दे सकते हैं लेकिन कॉमर्शियलाइजेशन के नाम पर अश्लीलता और फूहड़ता नहीं परोस सकते.
In conversation with Abbas Rizvi