भारत-प्रशासित कश्मीर में दशकों से बंदूक का साया हर ज़िंदगी पर मंडराता रहा है.


एक तरफ़ सुरक्षाबलों की वहां लोकतंत्र बनाए रखने की कोशिश तो दूसरी तरफ़ भारत-विरोधी चरमपंथियों का विद्रोह, और इन सबके बीच वो हज़ारों ज़िंदगियां जो दोनों तरफ़ से क़ुर्बान हो गईं.पीछे रह गईं तो उनकी विधवाएं और यतीम बच्चे.बीबीसी संवाददाता शालू यादव वादी में उन दो विधवाओं से मिलीं जो कश्मीर की लड़ाई के दो छोर दिखाती हैं– रफ़ीका जिनके पति चरमपंथी थे और गुलशन जिनके पति सैनिक थे. उनके पतियों के जज़्बे ने उनकी ज़िंदगी पर क्या असर डाला?पढ़िए पूरी रिपोर्टरफ़ीका ने बीबीसी को बताया कि 90 के दशक में बांदीपुर में लगभग हर घर में एक चरमपंथी था
रफ़ीका अपनी यादों को टटोलते हुए बताती हैं, "उसके बाद वे बस कुछ ही घंटों के लिए कभी-कभी घर आते थे. हमेशा आर्मी से छिपते हुए फिरते थे. कई दिन जंगलों में काट देते थे. मैं उनसे लड़ती थी और उन्हें धमकी भी देती थी कि अगर उन्होंने बंदूक नहीं छोड़ी तो मैं उन्हें तलाक दे दूंगी. लेकिन वो भी कम ज़िद्दी नहीं थे. कहते थे– मैं तुम्हें छोड़ सकता हूं पर बंदूक नहीं."उस झड़प में आठ चरमपंथी और दो सैन्यकर्मी मारे गए थे.दूसरा छोर


गुलशन कहती हैं कि वादी में चरमपंथियों की विधवाओं का दुख भी उतना ही है जितना कि सेना कि विधवाओं काफिर अगली सुबह उन्होंने एक हेलिकॉप्टर को आसमान में मंडराते हुए देखा. वह क्या जानती थीं कि उस हेलिकॉप्टर में अब्दुल हमीद का शव लाया जा रहा है.सेना और चरमपंथियों के बीच झड़प में अब्दुल के सीने में गोली लगी जिससे उनकी मौत हो गई.आंसू पोंछते हुए वह कहती हैं, "उन्होंने देश के लिए अपनी जान दे दी. मुझे फख़्र है उन पर. 2008 में उनके नाम के शौर्य चक्र से मुझे नवाज़ा गया. काश वे ज़िंदा होते और इस सम्मान को ख़ुद अपने हाथों से लेते."गर्व तो रफ़ीका को भी है अपने पति की ‘शहादत’ पर.वह कहती हैं, "मेरे ख़्याल भले ही उनसे नहीं मिलते थे, पर मेरी नज़र में वह शहीद हुए हैं. उनकी कुर्बानी भी किसी सैनिक की कुर्बानी से कम नहीं है. मुझे फख़्र है उन पर."आपसी नफ़रत नहींरफ़ीका के मुताबिक उनके पति की शहादत भी किसी सैनिक की शहादत से कम नहीं

गुलशन का घर उजाड़ा चरमपंथियों की बंदूक ने तो रफ़ीका विधवा हुईं सेना की गोलीबारी से, लेकिन हैरत ये है कि इन मौतों ने एक-दूसरे के लिए उनके मन में कड़वाहट नहीं पैदा की.गुलशन कहती हैं, "कश्मीर को लेकर जारी विवाद बिलकुल बेहुदा है. दोनों तरफ़ पुरुषों की जानें जा रही हैं और औरतें विधवा हो रही हैं. विधवाएं तो विधवाएं ही है, चाहे वो सैनिक की विधवा हो या किसी चरमपंथी की. हमारे हालात और मुश्किलात एक ही हैं. पुरुष तो इस लड़ाई में अपनी जान गंवाने को भी तैयार हो जाते हैं, लेकिन उनके बाद उनके बच्चों और पत्नियों की ज़िंदगी कैसी कटती है, ये आप हमसे पूछिए."तो वहीं रफ़ीका भी मन में कोई कड़वाहट नहीं रखतीं, "अगर कश्मीर को लेकर ये फ़साद नहीं होता, तो वादी में कितनी ही ज़िंदगियां ख़ुशहाल होती. मैं क्यों आर्मी वालों पर दोष मढ़ूँ. ये तो राजनीति है जो इस विवाद को आज तक ज़िंदा रखे हुए है. बस एक बात ज़रूर खलती है– सेना की विधवाओं को सरकार की ओर से हर सम्मान और मदद दी जाती है, लेकिन हमें सिर्फ़ नफ़रत की नज़रों से देखा जाता है."नफ़रत तो सैनिकों से भी की जाती है, ख़ासतौर पर वादी में. लेकिन गुलशन कहती हैं कि उन्हें इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता.
उनके मुताबिक, "सैनिक तो सिर्फ़ अपना धर्म निभा रहे हैं. अगर कश्मीर में सेना ने अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई होती, तो आज हालात बदतर होते."

Posted By: Satyendra Kumar Singh