आज पारसियोँ के नए साल का पहला दिन नवरोज़ है. मुंबई और पुणे जैसे शहरों में आज पारसी मंदिर और घर रंगोली फूल और रंगीन बल्बों से सजे होते हैं.


अमूमन, पारसी समुदाय के लोग अपने परंपरागत वस्त्र पहनकर मंदिर जाते हैं.विशेष पूजा के बाद सभी लोग एक दूसरे को बधाई और शुभकामनाएं देते हैं.इसके बाद दावतों का दौर शुरू हो जाता है जो रात तक चलता है.'न दिलचस्पी है, न पैसा'लेकिन कानपुर में रह रहे पारसियों के न ही घर सजे हैं और न ही मंदिर. और न ही उनके घरों से लज़ीज़ पकवानों की खुशबू आ रही है.कानपुर में ही पैदा और बड़े हुए 84 वर्षीय जमशेद शोराब मिस्त्री ने कहा, "मैं अपने समुदाय के लोगों से मिन्नतें करता हूँ कि हमें कम से कम त्यौहारों में मिलना चाहिए, एक साथ बैठकर खाना खाना चाहिए, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता."
1978 में इस मंदिर परिसर में एक अपार्टमेंट भी बनाया गया. आज कुछ-एक घर उस परिसर में खाली पड़े हैं और कुछ एक में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति रहता है.मॉल रोड जैसे इलाके में घरों का खाली रहना साफ़ दर्शाता है की पारसियों की संख्या किस तरह से कम हो रही है.भारत में पारसियों की घटती संख्या का नमूना कानपुर में देखा जा सकता है.'कानपुर में केवल 20 पारसी हैं'


यह पूछे जाने पर कि कानपुर में कितने पारसी हैं, मिस्त्री अपनी उंगलियों पर गिनने के बाद कहते हैं, "इस मंदिर परिसर में 17 हैं, एक-दो बाहर रह रहे होंगे. कुल 20 मान लीजिए."मंदिर परिसर में ही 87 वर्षीय केरसी रुस्तमजी का घर है. वह 1952 से पारसी मंदिर के पुजारी या मोबेद हैं.तो इतनी कम संख्या में यहां बचे पारसी परिवार अपनी अंतिम क्रिया के खास रिवाज़ कैसे पूरे करते हैं.इस सवाल के जवाब में वह कहते हैं कि मुंबई में तो टावर्स ऑफ़ साइलेंस या दख्मा हैं जहाँ मृत पारसियों के शरीर को छोड़ दिया जाता है ताकि पारसी रीति-रिवाज़ के मुताबिक उन्हें चील और गिद्ध खा लें, लेकिन कानपुर जैसे शहरों में तो अब शरीर को दफ़नाने की परंपरा चल पड़ी है.

Posted By: Satyendra Kumar Singh