'घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.' निदा फाजली की इन लाइनों से जाहिर है कि बच्‍चों को खुश करना खुदा की इबादत के मानिंद है. जबान जगह और सदियां बदल जाएं पर इन लाइनों का मतलब नहीं बदलता. तीसरी सदी में जन्‍मे संत निकोलस ने अपनी सारी पुश्‍तैनी धन-दौलत दान कर दी और दुखी बच्‍चों के चेहरे पर मुस्‍कान बिखेरने निकल पड़े. कालांतर में वे सिंतर क्‍लॉस और आज सांता क्‍लॉज के रूप में प्रचलित हैं. आज हर बच्‍चा अपने बड़ों से यह आश्‍वासन चाहता है कि उनके सोने के बाद सांता आएगा और उसके लिए गिफ्ट भी रख जाएगा.


तमाम जायदाद और धन कर दी दानतुर्की में तीसरी शताब्दी के दौरान एक संत निकोलस हुए. वे अपने दयालु प्रवृत्ति के कारण लोकप्रिय थे. उन्होंने अपनी तमाम पुश्तैनी धन-दौलत दान कर दी थी. वे दुखी लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाना चाहते थे. वे जगह-जगह घूम कर उनकी समस्याओं को दूर करके उन्हें खुश करने की कोशिश करते रहते थे. गरीबों और दुखी लोगों की मदद के कारण वे किंवदंती बन चुके थे. उनका बच्चों के प्रति कुछ खास लगाव था.कवि और कार्टूनिस्ट ने बनाया सांता
धीरे-धीरे सांता पूरे यूरोप में छा गए. लोग 6 दिसंबर को सांता बनते और बच्चों के बीच गिफ्ट बांटने का सिलसिला जो शुरू होता वह प्रभु यीशु मसीह के जन्म दिन क्रिसमस तक चलता. क्लेमेंट क्लार्क मूर ने अपनी तीन बेटियों के लिए 1822 में एक लंबी कविता लिखी `एन अकाउंट ऑफ ए विजिट फ्रॉम सेंट निकोलस'. कविता में सांता को लाल परिधान में सफेद दाढ़ी वाला हंसमुख बुजुर्ग बताया, जो रेंडियर स्लेज पर सवार होकर चिमनियों से घर में चुपके से आता है और दीवार पर टंगे जुराबों में बच्चों के लिए गिफ्ट छोड़ जाता है. यह कविता प्रकाशित हुई तो सांता अमेरिका में छा गए. बाद में जर्मन मूल के अमेरिकी कार्टूनिस्ट थॉमस नेस्ट 1863 की छवि गढ़ी. 1880 तक सांता के उस रूप से दुनिया परिचित हो चुकी, जिस रूप में आज हम उन्हें देखते हैं.

Posted By: Satyendra Kumar Singh