हाल ही में स्कूलों में संस्कृत सप्ताह मनाने का सीबीएसई का निर्देश अपने साथ प्रतिक्रियाएं लेकर भी लेकर आया. कुछ स्वागत में तो कुछ विरोध में.


हज़ारों साल जनमानस से लेकर साहित्य की भाषा रही संस्कृत कालांतर में क़रीब-क़रीब सुस्ता कर बैठ गई, जिसका एक मुख्य कारण इसे देवत्व का मुकुट पहनाकर पूजाघर में स्थापित कर दिया जाना था.भाषा को अपने शब्दों की चौकीदारी नहीं सुहाती– यानी भाषा कॉपीराइट में विश्वास नहीं करती, वह तो समाज के आँगन में बसती है.भाषा तो जिस संस्कृति और परिवेश में जाती है, उसे अपना कुछ न कुछ देकर ही आती है.पढ़िए राकेश भट्ट का लेख विस्तार सेवैदिक संस्कृत जिस बेलागपन से अपने समाज के क्रिया-कलापों को परिभाषित करती थी उतने ही अपनेपन के साथ दूरदराज़ के समाजों में भी उसका उठाना बैठना था. जिस जगह विचरती उस स्थान का नामकरण कर देती.


इस संस्कृत शब्द नमस् की यात्रा भारत से होती हुई ईरान पहुंची जहाँ प्राचीन फ़ारसी अवेस्ता उसे नमाज़ पुकारने लगी और आख़िरकार तुर्की, आज़रबैजान, तुर्कमानिस्तान, किर्गिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश, बर्मा, इंडोनेशिया और मलेशिया के मुसलामानों के दिलों में घर कर गई.संस्कृत ने पछुवा हवा बनकर पश्चिम का ही रुख़ नहीं किया बल्कि यह पुरवाई बनकर भी बही. चीनियों को “मौन” शब्द देकर उनके अंतस को भी “छू” गई.

चीनी भाषा में ध्यानमग्न खामोशी को मौन कहा जाता है और स्पर्श को छू कहकर पुकारा जाता है.

Posted By: Satyendra Kumar Singh